विकास वैभव ने फेसबुक पर दिवाली से जुड़ी अपनी कहानी लिखी

 


#दीपावली की पूर्व संध्या पर प्रकाश 🔥 के इस पर्व के आध्यात्मिक स्वरूप पर चिंतन कर रहा हूँ । तीसरी कक्षा में था जब निबंध लेखन हेतु अभ्यास के क्रम में यह जानने का अवसर मिला था कि प्रथम दीपावली अयोध्या में तब मनाई गई थी जब स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम 14 वर्षों के वनवास तथा लंका में भीषण युद्ध में विजय प्राप्ति के पश्चात अपनी राजधानी वापस लौट आए थे । निश्चित ही इस पर्व की सांस्कृतिक अवधारणा तो यही है परंतु यदि आध्यात्मिक स्वरूप पर दीर्घ चिंतन करेंगे तो अवश्य पाएंगे कि इस पर्व में अनेक गूढ़ संदेश समाहित हैं जिनके मूल में प्रकाश अपने स्वरूप एवं उर्जा के साथ स्थापित है । 



यदि प्रकाश के स्वरूप को समझने हेतु बृहदारण्यकोपनिषद् (1.3.28) के संदेश "तमसो मा ज्योतिर्गमय" की भावना पर चिंतन करें तो हम पाते हैं कि तमस का वास्तविक तात्पर्य अज्ञान से है तथा अंतर्निहित प्रार्थना ज्ञान रूपी प्रकाश को प्राप्त करने की ही है । वास्तव में प्रकाश तो उस संदेश का रूपक है जो यदि अल्प भी हो तो भी निश्चित ही सर्वव्याप्त तमस को नष्ट करने में सक्षम है । तमस का वास्तविक तात्पर्य तो उस सर्वव्यापी माया से है जिसमें उलझकर आत्मा अपने मूल स्वरूप (पूर्ण परम तत्व) से स्वयं को विच्छिन्न अनुभव करती है । दीपावली का आध्यात्मिक संदेश उस प्रकाश के प्रभाव की अनुभूति में निहित है जिसके कारण भौतिक अंधकार नष्ट हो जाता है तथा सकारात्मक भावों का उदय होता है । 



दीपावली की पूर्व संध्या पर चिंतन के क्रम में हर गृह से चतुर्दिक फैलते हर्षित प्रकाश को देख #यात्री_मन जहाँ अत्यंत पुलकित होता है वहीं समाज में तीव्र गति से बढ़ते आपसी वैमनस्य, प्रतिस्पर्धा तथा अहंकार रूपी अज्ञान के भावों को देखकर अत्यंत द्रवित एवं विचलित भी हो जाता है । दीपावली को सही भाव में मनाना तभी सार्थक होगा जब प्रकाश केवल भौतिक ही नहीं अपितु आध्यात्मिक भी हो जो अंतर मन को दिव्य प्रज्वलन के माध्यम से स्वार्थों से ऊपर उठा सत्य मार्ग पर प्रेरित करे । 


भर्तृहरि का स्मरण आ रहा है जिन्होंने वैराग्य शतक (2) में समाज की अवस्था पर टिप्पणी करते हुए अभिव्यक्त किया 


"मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः । 

अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम् ।।" 


अर्थात "जो विद्वान् हैं, वे इर्ष्या से भरे हुए हैं; जो धनवान हैं, उनको उनके धन का गर्व है; इनके सिवा जो और लोग हैं, वे अज्ञानी हैं; इसलिए विद्वत्तापूर्ण विचार, सुन्दर सारगर्भित निबन्ध या उत्तम काव्य शरीर में ही नाश हो जाते हैं ।" जिसका तात्पर्य यही है कि ज्ञान रूपी प्रकाश भले सुलभ हो परंतु उससे लाभान्वित कोई भी नहीं हो रहा । अपने अहंकार के अंत को भर्तृहरि ने नीति शतक (8) में व्यक्त करते हुए कहा 


"यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं,

तदा सर्वज्ञोऽसमीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।

यदा किंचित्किंचिद्बुधजनसकाशादवगत,

तदा मूर्खोस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥ 


अर्थात "जब  मैं बिल्कुल ही अज्ञानी था, तब मैं मदमस्त हाथी की तरह अभिमान मे अंधे होकर अपने आप को सर्वज्ञानी समझता था । परंतु विद्वानो की संगति से जैसे-जैसे मुझे ज्ञान प्राप्त होने लगा मुझे समझ मे आ गया की मैं अज्ञानी हूँ और मेरा अहंकार जो मुझपर ज्वर (बुखार) की तरह चढ़ा हुआ था उतर गया । 


तभी ज्ञान के प्रभाव पर नीति शतक (16) में ही उन्होंने कहा 


"हर्तुर्याति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा,

ह्यर्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धिं पराम् ।

कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धन,

येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते ॥ 


अर्थात "ज्ञान अद्भुत धन है, ये आपको एक ऐसी अद्भुत ख़ुशी देती है जो कभी समाप्त नहीं होती । जब कोई आपसे ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा लेकर आता है और आप उसकी मदद करते हैं तो आपका ज्ञान कई गुना बढ़ जाता है । शत्रु और आपको लूटने वाले भी इसे छीन नहीं पाएंगे यहाँ तक की ये इस दुनिया के समाप्त  हो जाने पर भी ख़त्म नहीं होगी । अतः हे राजन! यदि आप किसी ऐसे ज्ञान के धनी व्यक्ति को देखते हैं तो अपना अहंकार त्याग दीजिये और समर्पित हो जाइए, क्योंकि ऐसे विद्वानो से  प्रतिस्पर्धा करने का कोई अर्थ नहीं है ।" 


यदि व्यक्ति ज्ञान रूपी प्रकाश से वंचित रहे तो निश्चित ही समय व्यतीत होने पर वैराग्य शतक (12) के संदेश को अनुभव करेगा 


"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।

कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।" 


अर्थात "विषयों को हमने नहीं भोगा, किन्तु विषयों ने हमारा ही भुगतान कर दिया; हमने तप को नहीं तपा किन्तु तप ने हमें ही तपा डाला; काल का खात्मा न हुआ, किन्तु हमारा ही खात्मा हो चला । तृष्णा का बुढ़ापा न आया, किन्तु हमारा ही बुढ़ापा आ गया ।" जिसका तात्पर्य यही है कि समय के महत्व को समझकर ज्ञान रूपी प्रकाश को पूर्णतः प्राप्त करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए । 


अतः दीपावली की पूर्व संध्या पर चिंतन के क्रम में यह प्रार्थना एवं हार्दिक शुभकामना है कि चतुर्दिक प्रज्ज्वलित प्रत्यक्ष अग्नि अपने दिव्य हर्षित प्रकाश के शुद्ध चैतन्य रूप से केवल भौतिक दृष्टि को ही नहीं अपितु आध्यात्मिक अंतर्मन को भी जागृत कर निज स्वार्थों से मुक्त सत्य मार्ग की ओर सतत् प्रेरित कर पूर्णतः प्रकाशित करे जिससे सामूहिक रूप में समाज स्वतः सकारात्मक एवं कल्याणकारी दिशाओं में अग्रसर हो । 


तमसो मा ज्योतिर्गमय !


शुभकामनाएं ! #यात्री_मन ! 


#DiwaliThoughts

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